यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना के लिये किया जाता है।
ता. प्रतिनिधी (धनराज बाटबरवे)
वरोरा तालुका मे मोवाडा एक ऐसा गांव है जहाँ रक्षाबंधन के दिन और दुसरे दिन वहाँ के कूच कहार और परदेशी समाजके लोग गांव के बाकी सभी समाज के लोगो के साथ कजलियां पर्व मनाते है और खास तौरपर रक्षा बंधन पर्व के दूसरे दिन ढोल ताशेके साथ डान्स करके गांव मे रैली निकालर मनाया जाता है। इसे कई स्थानों पर भुजरियां / भुजलिया नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा पर्व है। इसका प्रचलन सदियों से चला आ रहा है। इस बार यह पर्व आज मनाया जा रहा है।
पर्व की मान्यता :
मान्यतानुसार इसकाप्र चलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में गेहूं के पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। फिर रक्षा बंधन के दूसरे दिन महिलाओं द्वारा इनकी पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को जल स्त्रोतों में विसर्जित किया जाता है।
शुभकामना का पर्व :
इस पर्व में रक्षाबंधन के दूसरे दिन एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं दी जाती है और घर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। कजलियां (भुजरियां) के दिन महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए और गाजे-बाजे के साथ तट या सरोवरों में कजलियां विसर्जन के लिए ले जाती है
पौराणिक महत्व :
इस पर्व की प्रचलित जानकारी के अनुसार आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह में ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था । महोबा के सिंह सपूतों आल्हा ऊदल-मलखान की वीरता की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड की धरती पर सुनीं व समझी जाती है। बताया जाता है कि महोबा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी। उस समय राजकुमारी तालाब में कजली सिराने अपनी सखियों के साथ गई हुई थी।
राजकुमारी को पृथ्वीराज से बचाने के लिए राज्य के वीर महोबा के सिंह सपूतों आल्हा ऊदल-मलखान ने वीरतापूर्ण पराक्रम दिखाया था। तब इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि के ममेरे भाई अभई भी उरई से जा पहुंचें। और कीरत सागर ताल के पास हुई लड़ाई में अभई को वीरगति प्राप्त हुई। उसमें राजा परमाल को बेटा रंजीत भी शहीद हो गया। बाद में आल्हा- ऊदल, और राजा परमाल के पुत्र ने बड़ी वीरता से पृथ्वीराज की सेना को हराया और वहां से भागने पर मजबूर कर भगा दिया।
महोबे की जीत के बाद पूरे बुंदेलखंड में कजलियां का त्योहार मनाया जाने लगा है। आज भी बुंदेली इतिहास में आल्हा- ऊदल का नाम बड़े ही आदरभाव से लिया जाता है। रक्षा बंधन के दूसरे दिन आज भी कई स्थानों पर वह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में गेहूं के पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। फिर रक्षा बंधन के दूसरे दिन महिलाओं द्वारा इनकी पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को जल स्त्रोतों में विसर्जित किया जाता है।