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संस्कृती :- मोवाडा पिंपलगाव मे रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया भुजरिया का पर्व.

एक-दूसरे को धन-धान्‍य से भरपूर होने की दी शुभकामना और बुजुर्गों से लिया आशीर्वाद,

वरोरा.टेमुर्डा.प्रतिनिधी.(धनराज मा बाटबरवे )मो.7498923172

वरोरा तहसिल मे टेमुर्डा परिसर के मोवाडा.पिंपळगाव मारोती गाव मे रविवार की शाम को रक्षाबंधन के दुसरे भुजरिया पर्व धूमधाम से मनाया गया, इस दरम्यान मंदिर में पूजा अर्चना की गई, इस दौरान गांव के महिला युवतिया एकत्रित हुए मोवाडा पिंपळगाव मारोती गाव के हनुमान मंदीर मे पुजा अर्चना की गई .इस दौरान मोवाडा गांव मे भटाला के राजु गायकवाड के टिम ने ढ़ोलक और टिमके की थाप पर जमकर धूम मचाई और पिंपळगाव मारोती मे डिजे बजाते नाचते हुए इस पर्व धुमधाम से मनाया गया, रंक्षा बधंन के दूसरे दिन रविवार शाम को महिलाओं और युवतियों इस अवसर पर महिलाओं ने जलाशयों और तालाबों पर मांगलिक नाचते गाते हुए भुजरियाओं का विसर्जन किया, उन्होंने अच्छी बारिश, उन्नत फसल, हरियाली और परिवार में सुख-समृद्धि की कामना की।

भुजरिया पर्व रक्षाबंधन के ठीक दूसरे दिन मनाया जाता है। इस पर्व में गेहूं के पौधों का विशेष महत्व होता है। सावन महीने की अष्टमी और नवमी को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं। इन बीजों को रोजाना पानी दिया जाता है। सावन के महीने में इन भुजरियों को झूला देने का भी रिवाज है। इन्हें उगने में एक सप्ताह का समय लगता है। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच तक बढ़ जाती हैं।

रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्रोतों तक ले जाती हैं। विसर्जन से पहले भुजरिया की पूजा की जाती है। इसके चारों ओर घूमकर लोकगीत गाए जाते हैं।

जल में प्रवाहित करने के दौरान कुछ भुजरिया को साथ लाकर एक-दूसरे को शुभकामनाएं और आशीर्वाद दिया जाता है। यह पर्व नई फसल का प्रतीक माना जाता है। इस दौरान अच्छी बारिश की कामना की जाती है, जिससे अच्छी फसल प्राप्त हो सके
यह है भुजरिया की कथा आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है। इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएं है। बताया जाता है कि महोबे के राजा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दी थी। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी – सहेलियन के साथ गई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के बीर-बांकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराक्रम दिखलाया था। इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से जा पहुंचे। कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई वीरगति को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा रंजीत शहीद हुआ। बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसें वीर ने पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया। महोबे की जीत के बाद से राजकुमारी चन्द्रवलि और सभी लोगों अपनी-अपनी कजिलयन को खोंटने लगी। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे कजलियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है। कजलियों (भुजरियां) पर गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए महिलाएं नर्मदा तट या सरोवरों में कजलियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां मनाने के साथ लोग एक – दूसरे से मिलेंगे और बड़े बुजुर्ग कजलियां देकर धन – धान्य से पूरित क हने का आशीर्वाद देंगे।

 

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